13-10-92  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

नम्बरवन बनना है तो ज्ञान और योग को स्वरूप में लाओ

स्वयं प्रकाश स्वरूप बन अनेकों का अन्धकार मिटाने वाले चैतन्य दीपकों प्रति सत् शिक्षक बापदादा बोले:

आज सत् शिक्षक अपनी श्रेष्ठ शिक्षा धारण करने वाले गॉडली स्टूडेन्ट को देख रहे हैं कि हर एक ईश्वरीय विद्यार्थी ने इस ईश्वरीय शिक्षा को कहाँ तक धारण किया है? पढ़ाने वाला एक है, पढ़ाई भी एक है लेकिन पढ़ने वाले पढ़ाई में नम्बरवार हैं। हर रोज का पाठ मुरली द्वारा हर स्थान पर एक ही सुनते हैं अर्थात् एक ही पाठ पढ़ते हैं। मुरली अर्थात् पाठ हर स्थान पर एक ही होता है। डेट का फर्क हो सकता है लेकिन मुरली वही होती है। फिर भी नम्बरवार क्यों? नम्बर किसलिए होते हैं? क्योंकि इस ईश्वरीय पढ़ाई पढ़ने की विधि सिर्फ सुनना नहीं है लेकिन हर महावाक्य स्वरूप में लाना है। तो सुनना सबका एक जैसा है लेकिन स्वरूप बनने में नम्बरवार हो जाते हैं। लक्ष्य सभी का एक ही रहता है कि मैं नम्बरवन बनूँ। ऐसा लक्ष्य है ना! लक्ष्य नम्बरवन का है लेकिन रिजल्ट में नम्बरवार हो जाते हैं। क्योंकि लक्ष्य को लक्षण में लाना-इसमें लक्ष्य और लक्षण में फर्क पड़ जाता है। इस पढ़ाई में सब्जेक्ट भी ज्यादा नहीं हैं। चार सब्जेक्ट को धारण करना-इसमें मुश्किल क्या है! और चारों ही सब्जेक्ट का एक-दो के साथ सम्बन्ध है। अगर एक सब्जेक्ट ‘ज्ञान’ सम्पूर्ण विधिपूर्वक धारण कर लो अर्थात् ज्ञान के एक-एक शब्द को स्वरूप में लाओ, तो ज्ञान है ही मुख्य दो शब्दों का जिसको रचयिता और रचना वा अल्फ और बे कहते हो। रचयिता बाप की समझ आ गई अर्थात् परमात्म-परिचय, सम्बन्ध स्पष्ट हो गया और रचना अर्थात् पहली रचना ‘‘मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ’’ और दूसरा ‘‘मुझ आत्मा का इस बेहद की रचना अर्थात् बेहद के ड्रामा में सारे कल्प में क्या-क्या पार्ट है’’-यह सारा ज्ञान तो सभी को है ना। लेकिन श्रेष्ठ आत्मा स्वरूप बन हर समय श्रेष्ठ पार्ट बजाना-इसमें कभी याद रहता है, कभी भूल जाते हैं। अगर इन दो शब्दों का ज्ञान है, योग भी इन दो शब्दों के आधार पर है ना। ज्ञान से योग का स्वत: ही सम्बन्ध है। जो ‘ज्ञानी तू आत्मा’ है वह ‘योगी तू आत्मा’ अवश्य ही है। तो ज्ञान और योग का सम्बन्ध हुआ ना। और जो ज्ञानी और योगी होगा उसकी धारणा श्रेष्ठ होगी या कमजोर होगी? श्रेष्ठ, स्वत: होगी ना, सहज होगी ना। कि धारणा में मुश्किल होगी? जो ‘ज्ञानी तू आत्मा’, ‘योगी तू आत्मा’ है वह धारणा में कमजोर हो सकता है? नहीं। होते तो हैं। तो ज्ञान-योग नहीं है? ज्ञानी है लेकिन ‘ज्ञानी तू आत्मा’ वह स्थिति नहीं है। योग लगाने वाले हैं लेकिन योगी जीवन वाले नहीं हैं। जीवन सदा होती है और जीवन नेचुरल होती है। योगी जीवन अर्थात् ओरीजिनल नेचर योगी की है।

63 जन्मों के विस्मृति के संस्कार वा कमजोरी के संस्कार ब्राह्मण जीवन में कहाँ-कहाँ मूल नेचर बन पुरूषार्थ में विघ्न डालते हैं। कितना भी स्वयं वा दूसरा अटेन्शन खिंचवाता है कि यह परिवर्तन करो वा स्वयं भी समझते हैं कि यह परिवर्तन होना चाहिए लेकिन जानते हुए भी, चाहते हुए भी क्या कहते हो? चाहते तो नहीं हैं लेकिन मेरी नेचर है यह, मेरा स्वभाव है यह। तो नेचर नेचुरल हो गई है ना। किसके बोल में वा व्यवहार में ज्ञान-सम्पन्न व्यवहार वा योगी जीवन प्रमाण व्यवहार वा बोल नहीं होते हैं तो वो क्या कहते हैं? यही बोल बोलेंगे कि मेरा नेचुरल बोल ही ऐसा है, बोलने का टोन ही ऐसा है। वा कहेंगे-मेरी चाल-चलन ही ऑफिशियल वा गम्भीर है। नाम अच्छे बोलते हैं-जोश नहीं है लेकिन ऑफिशियल है। तो चाहते भी, समझते भी नेचर नेचुरल वर्क (कार्य) करती रहती है, उसमें मेहनत नहीं करनी पड़ती है। ऐसे जो ज्ञानी जीवन वा योगी जीवन में रहते हैं, तो ज्ञान और योग सम्पन्न हर कर्म नेचुरल होते हैं अर्थात् ज्ञान और योग-यही उनकी नेचर बन जाती है और नेचर बनने के कारण श्रेष्ठ कर्म, युक्तियुक्त कर्म नेचुरल होते रहते हैं। तो समझा, नेचर नेचुरल बना देती है। तो ज्ञान और योग मूल नेचर बन जायें-इसको कहा जाता है ज्ञानी जीवन, योगी जीवन वाला।

ज्ञानी सभी हो, योगी सभी हो लेकिन अन्तर क्या है? एक हैं-ज्ञान सुनने-सुनाने वाले, यथा शक्ति जीवन में लाने वाले। दूसरे हैं-ज्ञान और योग को हर समय अपने जीवन की नेचर बनाने वाले। विद्यार्थी सभी हो लेकिन यह अन्तर होने के कारण नम्बरवार बन जाते हैं। जिसकी नेचर ही ज्ञानी-योगी की होगी उसकी धारणा भी नेचुरल होगी। नेचुरल स्वभाव-संस्कार ही धारणास्वरूप होंगे। बार-बार पुरूषार्थ नहीं करना पड़ेगा कि इस गुण को धारण करूँ, उस गुण को धारण करूँ। लेकिन पहले फाउन्डेशन के समय ही ज्ञान, योग और धारणा को अपनी जीवन बना दी। इसलिए यह तीनों सब्जेक्ट ऐसी आत्मा की स्वत: और स्वाभाविक अनुभूतियां बन जाती हैं। इसलिए ऐसी आत्माओं को सहज योगी, सहज ज्ञानी, सहज धारणामूर्त कहा जाता है। तीनों सब्जेक्ट का कनेक्शन है। जिसके पास इतनी अनुभूतियों का खज़ाना सम्पन्न होगा, ऐसी सम्पन्न मूर्तियां स्वत: ही मास्टर दाता बन जाती हैं। दाता अर्थात् सेवाधारी। दाता देने के बिना रह नहीं सकता। दातापन के संस्कार से स्वत: ही सेवा का सब्जेक्ट प्रैक्टिकल में सहज हो जाता है। तो चारों का ही सम्बन्ध हुआ ना। कोई कहे कि मेरे में ज्ञान तो अच्छा है लेकिन धारणा में कमी है-तो उसको ज्ञानी कहा जायेगा? ज्ञान तो दूसरों को भी देते हो ना। है तब तो देते हो! एक है-समझना, दूसरा है-स्वरूप में लाना। समझने में सभी होशियार हैं, समझाने में भी सभी होशियार हैं लेकिन नम्बरवन बनना है तो ज्ञान और योग को स्वरूप में लाओ। फिर नम्बरवार नहीं होंगे लेकिन नम्बरवन होंगे।

तो सुनाया कि आज सत् शिक्षक अपने चारों ओर के ईश्वरीय विद्यार्थियों को देख रहे थे। तो क्या देखा? सभी नम्बरवन दिखाई दिये वा नम्बरवार दिखाई दिये? क्या रिजल्ट होगी? वा समझते हो-नम्बरवन तो एक ही होगा, हम तो नम्बरवार में ही आयेंगे? फर्स्ट डिवीज़न में तो आ सकते हो ना। उसमें एक नहीं होता है। तो चेक करो-अगर बार-बार किसी भी बात में स्थिति नीचे-ऊपर होती है अर्थात् बार-बार पुरूषार्थ में मेहनत करनी पड़ती है, इससे सिद्ध है कि ज्ञान की मूल सब्जेक्ट के दो शब्द-’रचता’ और ‘रचना’ की पढ़ाई को स्वरूप में नहीं लाया है, जीवन में मूल संस्कार के रूप में वा मूल नेचर के रूप में वा सहज स्वभाव के रूप में नहीं लाया है। ब्राह्मण जीवन का नेचुरल स्वभाव-संस्कार ही योगी जीवन, ज्ञानी जीवन है। जीवन अर्थात् निरन्तर, सदा। 8 घण्टा जीवन है, फिर 4 घण्टा नहीं-ऐसा नहीं होता। आज 10 घण्टे के योगी बने, आज 12 घण्टे के योगी बने, आज 2 घण्टे के योगी बने-वो योग लगाने वाले योगी हैं, योगी जीवन वाले योगी नहीं। विशेष संगठित रूप में इसीलिए बैठते हो कि सर्व के योग की शक्ति से वायुमण्डल द्वारा कमजोर पुरूषार्थियों को और विश्व की सर्व आत्माओं को योग शक्ति द्वारा परिवर्तन करें। इसलिए वह भी आवश्यक है लेकिन इसीलिए योग में नहीं बैठते हो कि अपना ही टूटा हुआ योग लगाते रहो। संगठित शक्ति-यह भी सेवा के निमित्त है लेकिन योग-भट्ठी इसलिए नहीं रखते हो कि मेरा कनेक्शन फिर से जुट जाये। अगर कमजोर हो तो इसलिए बैठते हो और ‘‘योगी तू आत्मा’’ हो तो मास्टर सर्वशक्तिवान बन, मास्टर विश्व-कल्याणकारी बन सर्व को सहयोग देने की सेवा करते हो। तो पढ़ाई अर्थात् स्वरूप बनना। अच्छा!

आज दीपावली मनाने आए हैं। मनाने का अर्थ क्या है? दीपावली में क्या करते हो? दीप जलाते हो। आजकल तो लाइट जलाते हैं। और लाइट पर कौन आते हैं? परवाने। और परवाने की विशेषता क्या होती है? फिदा होना। तो दीपावली मनाने का अर्थ क्या हुआ? तो फिदा हो गये हो या आज होना है? हो गये हो या होना है? (हो गये हैं) तो दीपावली तो मना ली, फिर क्यों मनाते हो? जब फिदा हो गये तो दीपावली मना लिया। कि बीच-बीच में चक्कर लगाने जाते हो? फिदा हो गये हैं लेकिन थोड़े पंख अभी हैं, उससे थोड़ा चक्कर लगा लेते हो। तो चक्कर लगाने वाले तो नहीं हो ना। चक्कर लगाना अर्थात् किसी न किसी माया के रूप से टक्कर खाना। माया से टक्कर खाते हो या माया को हार खिलाते हो? वा कभी विजय प्राप्त करते हो, कभी टक्कर खाते हो?

दीपमाला-यह अपना ही यादगार मनाते हो। आपका यादगार है ना? कि मुख्य आत्माओं का यादगार है, आप देखने वाले हो? आप सबका यादगार है, इसीलिए आजकल बहुत अंदाज़ में दीपक के बजाए छोटे-छोटे बल्ब जगा देते हैं। दीपक जलायेंगे तो संख्या फिर भी उससे कम हो जायेगी। लेकिन आपकी संख्या तो बहुत है ना। तो सभी की याद में अनेक छोटे-छोटे बल्ब जगमगा देते हैं। तो अपना यादगार मना रहे हैं। जब दीपक देखते हो तो समझते हो यह हमारा यादगार है? स्मृति आती है? यही संगमयुग की विशेषता है जो चैतन्य दीपक अपना जड़ यादगार दीपक देखते हो। चैतन्य में स्वयं हो और जड़ यादगार देख रहे हो। ऐसे तो जिस दिन दीपावली मनाओ उस दिन ही वास्तविक तिथि है। यह तो दुनिया वालों ने तिथि फिक्स की है, लेकिन आपकी तिथि अपनी है। इसलिए जिस दिन आप ब्राह्मण मनाओ वही सच्ची तिथि है। इसलिए कोई भी तिथि फिक्स करते हैं तो किससे पूछते हैं? ब्राह्मणों से ही निकालते हैं। तो आज बापदादा सभी देश-विदेश के सदा जगे हुए दीपकों को दीपमाला की मुबारक दे रहे हैं, बधाई दे रहे हैं। दीपावली मुबारक अर्थात् मालामाल, सम्पन्न बनने की मुबारक।

ऐसे सदा जागती ज्योत, सदा स्वयं प्रकाशस्वरूप बन अनेकों का अन्धकार मिटाने वाले सच्चे दीपक, सदा चारों ही सब्जेक्ट को साथ-साथ जीवन में लाने वाले, सर्व सब्जेक्ट में नम्बरवन के लक्ष्य को लक्षण में लाने वाले, ऐसे ज्ञानी तू आत्माए, योगी तू आत्माए, दिव्यगुण स्वरूप आत्माए, निरन्तर सेवाधारी, श्रेष्ठ विश्व-कल्याणकारी आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

खुशनसीब वह जिसके चेहरे और चलन से सदा खुशी की झलक दिखाई दे

सभी अपने को सदा खुशनसीब आत्माए समझते हो? खुशनसीब आत्माओं की निशानी क्या होगी? उनके चेहरे और चलन से सदा खुशी की झलक दिखाई देगी। चाहे कोई भी स्थूल कार्य कर रहे हों, साधारण काम कर रहे हों लेकिन हर कर्म करते खुशी की झलक दिखाई पड़े। इसको कहते हैं निरन्तर खुशी में मन नाचता रहे। ऐसे सदा रहते हो? या कभी बहुत खुश रहते हो, कभी कम? खुशी का खज़ाना अपना खज़ाना हो गया। तो अपना खज़ाना सदा साथ रहेगा ना। या कभी-कभी रहेगा? बाप के खज़ाने को अपना खज़ाना बनाया है या भूल जाता है अपना खज़ाना? अपनी स्थूल चीज तो याद रहती है ना। वह खज़ाना आंखों से दिखाई देता है लेकिन यह खज़ाना आंखों से नहीं दिखाई देता, दिल से अनुभव करते हो। तो अनुभव वाली बात कभी भूलती है क्या? तो सदा यह स्मृति में रखो कि हम खुशी के खज़ाने के मालिक हैं। जितना खज़ाना याद रहेगा उतना नशा रहेगा। तो यह रूहानी नशा औरों को भी अनुभव करायेगा कि इनके पास कुछ है।

माताओं को सारा समय क्या याद रहता है? सिर्फ बाप याद रहता है या और भी कुछ याद रहता है? वर्से की तो खुशी दिखाई देगी ना। जब ब्राह्मण जीवन के लिए संसार ही एक बाप है, तो संसार के सिवाए और क्या याद आयेगा। सदा दिल में अपने श्रेष्ठ भाग्य के गीत गाते रहो। ऐसा श्रेष्ठ भाग्य सारे कल्प में प्राप्त होगा? जो सारे कल्प में अभी प्राप्त होता है, तो अभी की खुशी, अभी का नशा सबसे श्रेष्ठ है। तो माताओं को और कोई सम्बन्धी याद आते हैं? कोई सम्बन्ध में नीचे-ऊपर हो तो मोह जाता है? मोह सारा खत्म हो गया? जो कहते हैं-कुछ भी हो जाये, मेरे को मोह नहीं आयेगा-वो हाथ उठायें। अच्छा, मोह का पेपर भले आवे? पाण्डव तो नष्टोमोहा हैं ना। व्यवहार में कुछ ऊपर-नीचे हो जाए, फिर नष्टोमोहा हैं? अभी भी बीच-बीच में माया पेपर तो लेती है ना। तो उसमें पास होते हो? या जब माया आती है तब थोड़ा ढीले हो जाते हो? तो सदा खुशी के गीत गाते रहो। समझा? कुछ भी चला जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। चाहे किसी भी रूप में माया आये लेकिन खुशी न जाये। ऐसे खुश रहने वाले ही सदा खुशनसीब हैं। अच्छा!

अभी आन्ध्रा और कर्नाटक वालों को कौनसी कमाल करनी है? ऐसी कोई भी आत्मा वंचित नहीं रह जाये। हरेक को सन्देश देना है। जहां भी रहते हो-सर्व आत्माओं को सन्देश मिलना चाहिए। जितना सन्देश देंगे उतनी खुशी बढ़ती जायेगी। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

परमात्म-प्यार की पालना का अनुभव करने के लिये हर कार्य न्यारे होकर करो

सभी अपने को संगमयुगी हीरे तुल्य श्रेष्ठ आत्मा समझते हो? क्योंकि संगम पर इस समय हीरे तुल्य हो। सतयुग में सोने तुल्य बनेंगे। लेकिन इस समय सारे चक्र के अन्दर श्रेष्ठ आत्मा का पार्ट बजा रहे हो। तो हीरे समान जीवन अर्थात् इतनी अमूल्य जीवन बनी है? सबसे बड़ी मूल्यवान जीवन संगमयुग की है। तो ऐसी स्मृति रहती है कि इतने श्रेष्ठ हैं? क्योंकि जैसी स्मृति होगी वैसी स्थिति होगी। अगर स्मृति श्रेष्ठ है तो स्थिति साधारण नहीं हो सकती। अगर स्थिति साधारण है तो स्मृति भी साधारण है। तो सदा सर्वश्रेष्ठ मूल्यवान जीवन अनुभव करने वाली आत्मा हूँ-यह स्मृति में इमर्ज रहे। ऐसे नहीं कि मैं हूँ ही, मालूम है कि हम हीरे तुल्य हैं। लेकिन स्मृति में इमर्ज रूप में रहता है और उसी स्मृति से, उसी स्थिति से हर कार्य करते हो? क्योंकि हीरे तुल्य जीवन वा हीरे तुल्य स्थिति वाले का हर कर्म हीरे तुल्य होगा अर्थात् मूल्यवान होगा, ऊंचे ते ऊंचा होगा। तो हर कर्म ऐसे ऊंचा रहता है या कभी ऊंचा, कभी साधारण? क्योंकि सदा हीरे तुल्य हो। हीरा तो हीरा ही होता है, वह कभी सोना वा चांदी नहीं बनता। तो हर कर्म करते हुए चेक करो कि हीरे तुल्य स्थिति है, चलते-चलते साधारणता तो नहीं आ गई? क्योंकि 63 जन्म का अभ्यास है साधारण रहने का। तो पिछला संस्कार कभी खींच लेता है। कमजोर को कोई खींच लेगा, बहादुर को कोई खींच नहीं सकता। बहादुर उसको भी चरणों में झुका देगा। तो कभी भी साधारण स्थिति नहीं हो। अगर कोई विशेष ऑक्यूपेशन वाला ऐसा कोई साधारण कर्म करे तो उसको क्या कहा जायेगा? आज का प्राइम-मिनिस्टर अगर कोई ऐसा हल्का काम करे तो सभी उलहना देंगे ना, अच्छा नहीं लगेगा ना। तो आप कौन हो?

इतना नशा स्मृति में रखो जो सबको चलते-फिरते दिखाई दे कि यह कोई विशेष आत्मायें हैं। जैसे हीरा कितना भी मिट्टी में छिपा हुआ हो लेकिन फिर भी अपनी चमक दिखाता है। तो चाहे आप कितने भी साधारण वायुमण्डल में हों, कितने भी बड़े साधारण व्यक्तियों के बीच हों लेकिन विशेष आत्मा, अलौकिक आत्मा दिखाई दो। चाहे प्रवृत्ति में रहते हो, उन्हों के बीच में भी न्यारे दिखाई दो। ऐसा पुरूषार्थ है? और जितना न्यारे होंगे उतना बाप के प्यार के पात्र होंगे। कहां भी लगाव है तो न्यारा नहीं हो सकते। इसलिए न्यारा और प्यारा। कुछ भी कार्य करो लेकिन न्यारे होकर। फिर अनुभव करेंगे कि परमात्म-प्यार की पालना में सदा आगे उड़ रहे हैं। परमात्म-प्यार उड़ाने का साधन है। तो उड़ने वाले हो ना। धरनी की आकर्षण से सदा ऊपर रहो। धरनी अर्थात् माया खींचे नहीं। कितना भी आकर्षित रूप हो लेकिन माया की आकर्षण आप उड़ती कला वालों के पास पहुँच नहीं सकती। जैसे राकेट जाता है ना, तो धरनी की आकर्षण से परे हो जाता है। तो आप नहीं हो सकते हो? इसकी विधि है न्यारा बनना। बाप और मैं, बस। बाप के साथ उड़ते रहें। आकर्षित होकर नीचे नहीं आओ। सेवा अर्थ आते भी हैं तो माया की आकर्षण आ नहीं सकती, माया प्रूफ बनकर के आयेंगे। बाप न्यारा है, इसीलिए प्यारा है। तो फॉलो फादर। सदा न्यारे, सदा बाप के प्यारे। समझा? अच्छा!

ग्रुप नं. 3

स्वप्न का आधार है-साकार जीवन

सभी साकार रूप में समीप आने का, बैठने का पुरूषार्थ करते हो। इसके लिए भाग दौड़ करते हो ना। तो समीप रहना अच्छा लगता है ना। लेकिन यह हुआ थोड़े समय के लिए समीप रहना। जो सदा समीप रहे तो वह कितना बढ़िया हुआ! बाप के सदा समीप कौन रह सकता है? समीप रहने वाले की विशेषता क्या होगी? समान होंगे। जो समान होता है वह समीप होता है। तो जैसे यह थोड़े समय की समीपता प्रिय लगती है, तो सदा समीप रहने वाले कितने प्रिय होंगे! तो सदा समीप रहते हो या सिर्फ थोड़े समय के लिए समीप हो? समीप रहने के लिए भक्ति मार्ग में भी सत्संग का बहुत महत्व है। संग रहो अर्थात् समीप रहो। वह तो सिर्फ सुनने वाले

होते हैं और आप संग में रहने वाले हो। ऐसे हो? कभी मुख मोड़ तो नहीं लेते हो? माया आकर ऐसे मुख कर लेवे तो? सीता के माफिक माया को पहचान नहीं सको-ऐसे धोखा तो नहीं खाते हो?

धोखा खाने वाले चन्द्रवंशी बन जाते हैं। तो अच्छी तरह से माया को पहचानने वाले हो ना। बाप को भी पहचाना और माया को भी अच्छी तरह से पहचाना। अभी वह नया रूप धारण करके आये तो भी पहचान लेंगे ना। या नया रूप देखकर के कहेंगे कि हमको क्या पता! शक्तियाँ पहचानती हो? या कभी-कभी घबरा जाती हो? घबराते तब हैं जब बाप को किनारे कर देते हैं। अगर बाप के संग में हैं तो माया की हिम्मत नहीं जो समीप आ सके। तो पहचान ही लकीर है, इस पहचान की लकीर के अन्दर माया नहीं आ सकती। तो लकीर के अन्दर रहते हो या कभी-कभी संकल्प से थोड़ा बाहर निकल आते हो? अगर संकल्प में भी साथ की लकीर से बाहर आ जाते हो तो माया के साथी बन जाते हो। संकल्प वा स्वप्न में भी बाप से किनारा नहीं। ऐसे नहीं कि स्वप्न तो मेरे वश में नहीं हैं। स्वप्न का भी आधार अपनी साकार जीवन है। अगर साकार जीवन में मायाजीत हो तो स्वप्न में भी माया अंश-मात्र में भी नहीं आ सकती। तो मायाप्रूफ हो जो स्वप्न में भी माया नहीं आ सकती? स्वप्न को भी हल्का नहीं समझो। क्योंकि जो स्वप्न में कमजोर होता है, तो उठने के बाद भी वह संकल्प जरूर चलेंगे और योग साधारण हो जायेगा। इसीलिए इतने विजयी बनो जो संकल्प से तो क्या लेकिन स्वप्न मात्र भी माया वार नहीं कर सके। सदा मायाजीत अर्थात् सदा बाप के समीप संग में रहने वाले। कोई की ताकत नहीं जो बाप के संग से अलग कर सके-ऐसे चैलेन्ज करने वाले हो ना। इतना दिल से आवाज निकले कि हम नहीं विजयी बनेंगे तो और कौन बनेंगे! कल्प पहले बने थे। सदा यह स्मृति में अनुभव हो-हम ही थे, हम ही हैं और हम ही रहेंगे। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

अकल्याण की सीन में भी कल्याण दिखाई दे

बाप में निश्चय है कि वही कल्प पहले वाला बाप फिर से आकर मिला है? ऐसे ही अपने में भी इतना निश्चय है कि हम भी वही कल्प पहले वाले बाप के साथ पार्ट बजाने वाली विशेष आत्माए हैं? या बाप में निश्चय ज्यादा है, अपने में कम है? अच्छा, ड्रामा में जो भी होता है उसमें भी पक्का निश्चय है? जो ड्रामा में होता है वह कल्याणकारी युग के कारण सब कल्याणकारी है। या कुछ अकल्याण भी हो जाता है? कोई मरता है तो उसमें कल्याण है? वो मर रहा है और आप कल्याण कहेंगे-कल्याण है! बिजनेस में नुकसान हो गया-यह कल्याण हुआ? तो नुकसान भी कल्याणकारी है! ज्ञान के पहले जो बातें कभी आपके पास नहीं आई, ज्ञान के बाद आई तो उसमें कल्याण है? माया नीचे-ऊपर कर रही है, कल्याण है? इसमें क्या कल्याण है? माया आपको अनुभवी बनाती है। अच्छा, तो ड्रामा में भी इतना ही अटल निश्चय हो। चाहे देखने में अच्छी बात न भी हो लेकिन उसमें भी गुप्त अच्छाई क्या भरी हुई है, वो परखना चाहिए। जैसे कई चीजें होती हैं, उनका बाहर से कवर (Cover;ढक्कन) अच्छा नहीं होता है लेकिन अन्दर बहुत अच्छी चीज होती है। बाहर से देखेंगे तो लगेगा-पता नहीं क्या है? लेकिन पहचान कर उसे खोलकर अन्दर देखेंगे तो बढ़िया चीज निकल आयेगी। तो ड्रामा की हर बात को परखने की बुद्धि चाहिए। निश्चय की पहचान ऐसे समय पर आती है। परिस्थिति सामने आवे और परिस्थिति के समय निश्चय की स्थिति, तब कहेंगे निश्चय बुद्धि विजयी। तो तीनों में पक्का निश्चय चाहिए-बाप में, अपने आप में और ड्रामा में। दर्द में तड़प रहे हो और कहेंगे-वाह ड्रामा वाह! उस समय चिल्लायेंगे या ‘वाह-वाह’ करेंगे? ‘हाय बाबा बचाओ’-यह नहीं कहेंगे? जब निश्चय है, तो निश्चय का अर्थ ही है-संशय का नाम-निशान न हो। कुछ भी हो जाए लेकिन अटल-अचल निश्चयबुद्धि, कोई भी परिस्थिति हलचल में नहीं ला सकती। क्योंकि हलचल में आना अर्थात् कमजोर होना।

कोई भी चीज ज्यादा हलचल में आ जाए, हिलती रहे-तो टूटेगी ना! तो संकल्प में भी हलचल नहीं। ऐसे अटल-अचल आत्माए अटल राज्य के अधिकारी बनती हैं। सतयुग-त्रेता में अटल राज्य है, कोई उस राज्य को टाल नहीं सकता। कोई और राजा लड़ाई करके राज्य छीन ले-यह हो ही नहीं सकता। इसलिए यह अविनाशी अटल राज्य गाया हुआ है। अनेक जन्म यह अटल-अखण्ड राज्य करते हो। लेकिन कौन अधिकारी बनता? जो यहां संगम पर अचल-अखण्ड रहते हैं, खण्डित नहीं होते। आज निश्चय है, कल निश्चय डगमग हो जाए-उसको कहते हैं खण्डित। तो खण्डित चीज कभी पूज्य नहीं होती। अगर मूर्ति भी कभी खण्डित हो जाए तो पूजा नहीं होगी। म्युजियम में भले रखें लेकिन पूजा नहीं होगी। तो अखण्ड निश्चयबुद्धि आत्माए। ऐसे निश्चयबुद्धि सदा ही विजय की खुशी में रहते हैं, उनके अन्दर सदा खुशी के बाजे बजते रहते हैं। आज की दुनिया में भी जब विजय होती है तो बाजे बजते हैं ना। तो ऐसे सदा निश्चयबुद्धि आत्मा के मन में सदा खुशी के बाजे-गाजे बजते रहते हैं। बार-बार बजाने नहीं पड़ते, आटोमेटिक बजते रहते हैं। ऐसे अनुभव करते हो? या कभी बाजे-गाजे बन्द हो जाते हैं? भक्ति में कहते हैं अनहद गीत-जिसकी हद नहीं होती, आटोमेटिक बजता रहे। तो अनहद गीत बजते रहें। डबल विदेशियों के पास आटोमेटिक गीत बजते हैं? सदा बजते हैं या कभी-कभी? सदा बजते हैं।

सबसे बड़े ते बड़ा खज़ाना खुशी का अभी मिलता है। सम्भालना आता है ना। सम्भाल करने की विधि है-सदा बाप को साथ रखना। अगर बाप सदा साथ है तो बाप का साथ ही बड़े ते बड़ा सेफ्टी का साधन है। तो खज़ाना सेफ रखना आता है या माया चोरी करके जाती है? छिप-छिप कर आती तो नहीं है? वो भी चतुर है। आने में वो भी कम नहीं है। लेकिन बाप का साथ माया को भगाने वाला है। तो आप कौनसी आत्माए हो? निश्चयबुद्धि विजयी आत्माए हो! सदा विजय का तिलक मस्तक पर लगा हुआ है, जिस तिलक को कोई मिटा नहीं सकता। अविनाशी तिलक है ना! या माया का हाथ आ जाता है तो मिट जाता है? अच्छा!

सभी महान आत्मायें हो ना। कहाँ के भी हो लेकिन इस समय तो सभी मधुबन निवासी हो। मधुबन कहने से खुशी होती है ना। क्यों? मधुबन कहने से मधुबन का बाबा याद आता है। इसीलिए मधुबन निवासी बनना पसन्द करते हो। सब चाहते हो ना-यहीं रह जायें। वो भी दिन आ जायेंगे। खटिया नहीं मिलेगी, तकिया नहीं मिलेगा-फिर नींद कैसे आयेगी? तैयार हो ऐसे सोने के लिए? अपनी बांह को ही तकिया बनाना पड़ेगा, पत्थर पर सोना पड़ेगा। कितने दिन सोयेंगे? अभ्यास सब होना चाहिए। अगर साधन मिलता है तो भले सोओ, लेकिन नहीं मिले तो नींद नहीं आवे-ऐसा अभ्यास नहीं हो। अभी तो किसी को खटिया चाहिए, किसी को अलग कमरा चाहिए। इसलिए ज्यादा नहीं मंगाते। अगर सभी पट पर सोओ तो कितने आ सकते हैं? डबल संख्या हो सकती है ना। फिर कोई नहीं कहेगा-टांग में दर्द है, कमर में दर्द है, बैठ नहीं सकती हूँ? क्या भी मिले, खाना मिले, नहीं मिले-तैयार हो? वो भी पेपर आयेगा। डबल विदेशी पट में सो सकेंगे? इतने पक्के होने चाहिए-अगर बिस्तरा मिला तो भी अच्छा, नहीं मिला तो भी अच्छा। ‘हाय-हाय’ नहीं करेंगे। सहन करने में माताए होशियार होती हैं। पाण्डव भी होशियार हैं। जब इतना साथ होगा तो संगठन की खुशी सब-कुछ भुला देती है। तो निश्चय है ना। ब्राह्मण जीवन अर्थात् मौज ही मौज-उठें तो भी मौज में, सोयें तो भी मौज में। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

अपनी श्रेष्ठ शान में रहो तो परेशानियां समाप्त हो जायेंगी

सभी अपनी स्थूल सीट पर सेट हो गये। सेट होने में खुशी होती है ना! अपसेट होना अच्छा नहीं लगता है और सेट होना अच्छा लगता है। तो ऐसे ही सदा मन और बुद्धि की स्थिति की सीट पर सेट रहते हो? या अपसेट भी होते हो? अपसेट होने से परेशानी होती है और सेट होने से खुशी होती है, आराम मिलता है। तो सदा खुशी में रहते हो या थोड़ा-थोड़ा परेशान होते हो? अपनी शान को भूलना अर्थात् परेशान होना। तो संगमयुग पर सबसे बड़े ते बड़ी आप ब्राह्मणों की शान कौनसी है? ईश्वरीय शान है ना-सर्वश्रेष्ठ आत्माए हैं। तो सर्वश्रेष्ठ बनने का शान है। तो याद रहता है कि हम ही ऊंचे ते ऊंचे भगवान के बच्चे ऊंचे ते ऊंचे हैं। जब ये शान याद रहता है तो कभी भी परेशान नहीं होंगे। चाहे कोई कितना भी परेशान करे लेकिन आप नहीं होंगे क्योंकि आपका शान सबसे ऊंचा है। तो कभी-कभी व्यवहार में, कभी वातावरण के कारण परेशान होते हो? परेशान 63 जन्म रहे। भटकना माना परेशान होना। भक्ति में भटकते रहे ना! तो आधा कल्प परेशान रहने का अनुभव कर लिया। अभी तो शान में रहेंगे ना!

देवताई शान से भी ऊंचा ये ब्राह्मण शान है। देवताई ताज और तख्त से ऊंचा तख्त अभी है। तो तख्त पर बैठना आता है या खिसक जाते हो नीचे? सभी को तख्त और तिलक मिला है, ताज भी मिला है। सेवा का ताज मिला है। तो ताज माथे में रूकता है या उतर जाता है? तो तख्तनशीन आत्माए कभी परेशान नहीं हो सकतीं। तख्त कोई छीन लेता है तो परेशान होते हैं। तो सदा अपनी प्राप्तियों की स्मृति में रहो। सदा अपनी बुद्धि में सर्व प्राप्तियों की लिस्ट रखो। कॉपी में नहीं, बुद्धि में रखो। अगर प्राप्तियों की लिस्ट सामने रहे तो सदा अपना श्रेष्ठ शान स्वत: स्मृति में रहेगा। एक भी प्राप्ति को सामने रखो तो कितनी शक्ति आती है! और सर्व प्राप्तियां स्मृति में रहें तो सर्वशक्तिवान स्थिति सहज हो जायेगी। जब प्राप्तियों की लिस्ट सदा बुद्धि में होगी तो स्वत: ही मन से, दिल से गीत गायेंगे-पाना था वो पा लिया......! सदा खुशी में नाचते रहेंगे-पा लिया! दुनिया वाले पाने के लिए भटक रहे हैं और आप कहेंगे-पा लिया, ठिकाना मिल गया, भटकना समाप्त हो गया। अभी मन व्यर्थ संकल्पों में भटकता है? जब भी मन या बुद्धि भटकती है तो यह गीत गाओ-पाना था सो पा लिया.......! बाप मिला सब-कुछ मिला। इसी नशे में रहो। समझा?

यह नहीं याद रखो कि हम दिल्ली के हैं या हम बनारस के हैं। कभी भी प्रवृत्ति में या घर में रहते-यह नहीं सोचो। सेवा-स्थान पर रह रहे हो। सेवा-स्थान समझने से न्यारे-प्यारे रहेंगे। घर समझने से मेरा-मेरा आएगा और सेवा-स्थान है तो ट्रस्टी रहेंगे। गृहस्थी अर्थात् मेरापन और ट्रस्टी अर्थात् तेरा। सेवा-स्थान समझने से सदा सेवा याद रहेगी। प्रवृत्ति है तो प्रवृत्ति को निभाने में ही लग जायेंगे। सेवाधारी सदा न्यारे रहेंगे। सब-कुछ बाप के हवाले कर दिया। इसलिए सब तेरा। जब संकल्प कर लिया कि मैं बाबा की और बाबा मेरा, तो जो संकल्प है वही साकार रूप में लाना है। सिर्फ संकल्प नहीं लेकिन साकार स्वरूप में, हर कर्म में ‘‘मेरा बाबा’’ मानकर के चलना। मेरा बाबा है बीज, बीज में सारा वृक्ष समाया हुआ है। अच्छा!